उस के हिसार-ए-ख़्वाब को मत कर्ब-ए-ज़ात कर
उस के हिसार-ए-ख़्वाब को मत कर्ब-ए-ज़ात कर
इस ख़ुशबू-ए-ख़याल को तू काएनात कर
दिल कब तलक जुदाई की शामें मनाएगा
मेरी तरफ़ कभी तो नसीम-ए-हयात कर
मैं इक तवील रास्ते पर हूँ खड़ी हुई
या हब्स-ए-तीरगी ले या हाथों में हाथ कर
धीमे सुरों में छेड़ के फिर साज़-ए-ज़िंदगी
तू मेरे लहजे में भी कभी मुझ से बात कर
वो हिजरतें हों, हिज्र हो या क़िस्सा-ए-विसाल
आ फिर से मेरे नाम सभी वाक़िआ'त कर
पैरों से उस के नाम के रस्ते लिपट गए
अब तो यक़ीं के शहर में 'नाहीद' रात कर
(394) Peoples Rate This