अभी से ताक़-ए-तलब पर न तू सजा मुझ को
अभी से ताक़-ए-तलब पर न तू सजा मुझ को
अभी तो करना है इस दिल से मशवरा मुझ को
अभी शबीह मुकम्मल नहीं हुई तेरी
अभी तो भरना है इक रंग-ए-मावरा मुझ को
कोई न कोई तो सूरत निकल ही आएगी
ज़रा बताओ तो दरपेश मरहला मुझ को
ये बात बात पे तकरार-ओ-बहस क्या करना
कि जीतना है तुम्हें और हारना मुझ को
मैं उस की ज़ात में शामिल थी, उस को मिल जाती
दुआ-ए-ख़ैर समझ कर वो माँगता मुझ को
मैं जिस में देख के ख़ुद को सँवार लूँ 'नाहीद'
अभी मिला ही कहाँ है वो आइना मुझ को
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