ये हमारी क़िस्मत के
जितने भी सितारे हैं
क़ुदरत-ए-इलाही ने
बे-मुराद रस्तों पर बाँध कर उतारे हैं
जिन की अपनी मंज़िल ही बे-निशान रस्ते हों
रौशनी जो ग़ैरों से मुस्तआ'र लेते हों
कैसे मैं यक़ीं कर लूँ
मेरी मंज़िलों के वो
मो'तबर इशारे हैं
ये हमारी क़िस्मत के
जितने भी सितारे हैं
सिर्फ़ इस्तिआ'रे हैं