मुझ में सोए हुए माहताब से कम वाक़िफ़ है
मुझ में सोए हुए माहताब से कम वाक़िफ़ है
तू मिरी आँख के तालाब से कम वाक़िफ़ है
बुग़्ज़-ए-आ'दा ख़ू-ए-अहबाब से कम वाक़िफ़ है
जो मिरे हल्क़ा-ए-अर्बाब से कम वाक़िफ़ है
सतवत-ए-क़स्र-ए-शही धोके में रखता है कि जो
अज़्मत-ए-गुम्बद-ओ-मेहराब से कम वाक़िफ़ है
इश्क़ की चाहिए ता'लीम अभी और उसे
जो मोहब्बत अदब आदाब से कम वाक़िफ़ है
ज़ीस्त करने को बहुत चश्म-ए-फुसूँ-कार मुझे
वो मिरे इश्क़ के ज़रताब से कम वाक़िफ़ है
मानवी तौर पर उस पे मैं मुकम्मल ना खुली
वो मिरी ज़ात के एराब से कम वाक़िफ़ है
तुझ पे मैं खोलूँगी इक दिन सभी औराक़-ए-जमाल
तू अभी हुस्न के अबवाब से कम वाक़िफ़ है
क्या बनेगा जो ना टल पाई बला-ए-फुर्क़त
हिज्र तो वस्ल के अस्बाब से कम वाक़िफ़ है
एक ही शख़्स का करती है अदब धड़कन भी
दिल तो दुनिया तिरे आदाब से कम वाक़िफ़ है
इतना पोशीदा उसे रक्खा है 'अम्बर' सब से
आँख अपनी भी मिरे ख़्वाब से कम वाक़िफ़ है
(525) Peoples Rate This