ज़िंदगी अपनी कामयाब नहीं
ज़िंदगी अपनी कामयाब नहीं
ग़म-ए-दौराँ का कुछ हिसाब नहीं
दर्द जिस में न हो वो दिल कैसा
नाज़ जिस में न हो शबाब नहीं
मौज-ए-दरिया को चाहिए तेज़ी
जो उठाए न सर हबाब नहीं
दोस्त तेरी हरीम-ए-अक़्दस में
एक बंदा ही बारयाब नहीं
ख़्वाब-ए-मर्ग आएगा ज़रूर इक दिन
ये हक़ीक़त है कोई ख़्वाब नहीं
तेरे बाब-ए-क़ुबूल पर यारब
अर्ज़ मेरी ही मुस्तजाब नहीं
काम ये ला जवाब करते हो
मेरे ख़त का कोई जवाब नहीं
मेरे जुर्मों का कुछ हिसाब तो है
तेरे ही रहम का हिसाब नहीं
क्या करूँ तेरी दीद की हसरत
जब मुझे देखने की ताब नहीं
देख गहरी नज़र से दरिया को
कोई ऐसी खुली किताब नहीं
तुझ से बेकस हैं सैकड़ों 'नादिर'
ज़ेर-ए-गर्दूं तू ही ख़राब नहीं
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