फिर न बाक़ी रहे ग़ुबार कभी
होली खेलो जो ख़ाकसारों में
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तिरी तारीफ़ हो ऐ साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन
न ख़ंजर उठेगा न तलवार इन से
तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं
हो गए राम जो तुम ग़ैर से ए जान-ए-जहाँ
फूलों को अपने पाँव से ठुकराए जाते हैं
हैं दीन के पाबंद न दुनिया के मुक़य्यद
कोई परी हो अगर हम-कनार होली में
ऐ बुत हैं हुस्न में तिरी मशहूर पिंडलियाँ
नाव काग़ज़ की तन-ए-ख़ाकी-ए-इंसाँ समझो
दिल आँखों से आशिक़ बचाए हुए हैं
रूह तन्हा गई जन्नत को सुबुक-सारी से