नाव काग़ज़ की तन-ए-ख़ाकी-ए-इंसाँ समझो
ग़र्क़ हो जाएँगी छींटा जो पड़ा पानी का
Mir Taqi Mir
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Gulzar
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Rahat Indori
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दिल आँखों से आशिक़ बचाए हुए हैं
दिल मुझे कुफ़्र आश्ना न करे
कोई परी हो अगर हम-कनार होली में
हो गए राम जो तुम ग़ैर से ए जान-ए-जहाँ
रूह तन्हा गई जन्नत को सुबुक-सारी से
हैं दीन के पाबंद न दुनिया के मुक़य्यद
तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं
न ख़ंजर उठेगा न तलवार इन से
सर कटा कर सिफ़त-ए-शम्अ' जो मर जाते हैं
दरिया-ए-शराब उस ने बहाया है हमेशा
तिरी तारीफ़ हो ऐ साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन