दरिया-ए-शराब उस ने बहाया है हमेशा
साक़ी से जो कश्ती के तलबगार हुए हैं
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हैं दीन के पाबंद न दुनिया के मुक़य्यद
रूह तन्हा गई जन्नत को सुबुक-सारी से
दिल मुझे कुफ़्र आश्ना न करे
दिल आँखों से आशिक़ बचाए हुए हैं
तिरी तारीफ़ हो ऐ साहिब-ए-औसाफ़ क्या मुमकिन
फिर न बाक़ी रहे ग़ुबार कभी
तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं
कोई परी हो अगर हम-कनार होली में
नाव काग़ज़ की तन-ए-ख़ाकी-ए-इंसाँ समझो
सर कटा कर सिफ़त-ए-शम्अ' जो मर जाते हैं
न ख़ंजर उठेगा न तलवार इन से