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गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं - नदीम माहिर कविता - Darsaal

गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं

गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं

दस्तरस से निकल रहा हूँ मैं

धूप का भी अजब तमाशा है

अपने साए पे चल रहा हूँ मैं

गुफ़्तुगू है मेरी गुलाबों सी

शख़्सियत में कँवल रहा हूँ मैं

धूप जब से मली है चेहरे पर

रफ़्ता रफ़्ता पिघल रहा हूँ मैं

गिर्द मेरे है वहशतों का हुजूम

एक जंगल में पल रहा हूँ मैं

एक हिचकी का खेल है 'माहिर'

इस क़दर क्यूँ मचल रहा हूँ मैं

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In Hindi By Famous Poet Nadeem Mahir. is written by Nadeem Mahir. Complete Poem in Hindi by Nadeem Mahir. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.