एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
एक तो काविश-ए-जिगर भी करूँ
और फिर मिन्नत-ए-समर भी करूँ
इश्क़ में ख़ैर था जुनूँ लाज़िम
अब कोई दूसरा हुनर भी करूँ
सोचता हूँ तिरे तआक़ुब में
ख़ुद को रुस्वा-ए-बाल-ओ-पर भी करूँ
पहले बिन-माँगे ज़िंदगी दे दी
और फिर शर्त है बसर भी करूँ
शेर लिक्खूँ भी और लोगों में
शायरी अपनी मुश्तहर भी करूँ
लफ़्ज़ ओ मअ'नी का जब्र झेलूँ भी
और फिर ख़ुद को मो'तबर भी करूँ
काम कुछ बे-सबब भी कर डालूँ
और कुछ काम सोच कर भी करूँ
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