सूरत-ए-गुल कभी ज़ुल्फ़ों में सजा कर ले जाए
सूरत-ए-गुल कभी ज़ुल्फ़ों में सजा कर ले जाए
जब भी चाहे वो मुझे अपना बना कर ले जाए
दिल को रक्खा है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत कब से
कोई तो आए इधर और उठा कर ले जाए
रात-भर जागता रहता हूँ मैं इस ख़ौफ़ के साथ
तुझ को मुझ से न कोई शख़्स चुरा कर ले जाए
जब भी आती है किसी और से आँधी अक्सर
मेरे आँगन से तिरे नक़्श उठा कर ले जाए
दावत-ए-आम है उस जान के दुश्मन को मुझे
तल्ख़ियाँ माज़ी की इस बार भुला कर ले जाए
जब भी ताबीर का इम्कान नज़र आता है
मेरी आँखों से कोई ख़्वाब चुरा कर ले जाए
मैं तो इस शख़्स से कहता रहा हर बार 'नबील'
मुझ को दो बोल मोहब्बत के सुना कर ले जाए
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