आँखों के इज़्तिराब से ऐसे झड़े हैं ख़्वाब
आँखों के इज़्तिराब से ऐसे झड़े हैं ख़्वाब
शब के शजर पे नींद की सूरत पड़े हैं ख़्वाब
आती नहीं है नींद मुझे इस लिए भी दोस्त
आँखों की पुतलियों में हज़ारों झड़े हैं ख़्वाब
निकला न फिर भी कोई नतीजा बहार का
ता'बीर से अगरचे बहुत ही लड़े हैं ख़्वाब
जब भी चला हूँ नींद के रस्ते पे यूँ लगा
हाथों को जोड़ कर मिरे आगे खड़े हैं ख़्वाब
दिल से ग़मों का इस लिए छाला न जा सका
काँटों की मिस्ल चश्म-ए-तलब में अड़े हैं ख़्वाब
तुझ को कहाँ ख़बर है कि कैसे हैं रतजगे
तुझ को कहाँ ख़बर है कि कितने कड़े हैं ख़्वाब
इस बार भी यहाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह
आँखों में जिस क़दर थे वो सारे सड़े हैं ख़्वाब
आया नहीं 'नबील' पलट के वो एक शख़्स
रंजीदा इस लिए भी हमारे बड़े हैं ख़्वाब
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