वो कौन है दुनिया में जो मजबूर नहीं है
वो कौन है दुनिया में जो मजबूर नहीं है
इंसाँ को किसी बात का मक़्दूर नहीं है
हर शय पे तिरे हुस्न का जादू है अज़ल से
क्या चीज़ तिरे हुस्न से मसहूर नहीं है
महकूम बना लेता बशर अर्ज़-ओ-समा को
लेकिन वो करे क्या उसे मक़्दूर नहीं है
दुनिया में उसे ऐश-ओ-मसर्रत न मिलेंगे
वो दिल जो ग़म-ए-इश्क़ से रंजूर नहीं है
माना कि हक़ीक़त को समझना नहीं आसाँ
इंसान हक़ीक़त से मगर दूर नहीं है
है साहब-ए-ईमाँ की कमी अहल-ए-जहाँ में
इक राज़ भी वर्ना तिरा मस्तूर नहीं है
उट्ठो कि ज़माने को गुनाहों से बचाएँ
जो दिन है क़यामत का वो दिन दूर नहीं है
कुछ कीजिए आ'माल सँवर जाएँ जहाँ में
कुछ सोचिए अब वक़्त-ए-क़ज़ा दूर नहीं है
तूफ़ान की हर मौज है इक दर्स-ए-हक़ीक़त
साहिल पे पहुँचना मुझे मंज़ूर नहीं है
एहसास-ए-सदाक़त जो नहीं अहल-ए-तलब में
चेहरों पे भी ईमान का वो नूर नहीं है
माना कि हर इक इशरत-ए-आलम है मयस्सर
इंसान मगर आज भी मसरूर नहीं है
हर क़ौम का एहसास नहीं जिस के अमल में
दर-अस्ल वो जम्हूर भी जम्हूर नहीं है
है 'नाज़' का हर शेर ख़ुद इक शम-ए-फ़रोज़ाँ
ये बात अलग है कि वो मशहूर नहीं है
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