ग़ुंचे ग़ुंचे पे गुलिस्ताँ के निखार आ जाए
ग़ुंचे ग़ुंचे पे गुलिस्ताँ के निखार आ जाए
जिस तरफ़ से वो गुज़र जाएँ बहार आ जाए
हर नफ़स हश्र-ब-दामाँ है जुनून-ए-ग़म में
किस तरह अहल-ए-मोहब्बत को क़रार आ जाए
वो कोई जाम पिला दें तो न जाने क्या हो
जिन के देखे ही से आँखों में ख़ुमार आ जाए
ग़ैर ही से सही पैहम ये कुदूरत क्यूँ हो
कहीं आईना-ए-दिल पर न ग़ुबार आ जाए
कुछ इस अंदाज़ से है हुस्न पशीमान-ए-जफ़ा
कोई मायूस-ए-वफ़ा देखे तो प्यार आ जाए
'नाज़' घर से लिए जाता है सू-ए-दश्त मुझे
वो जुनूँ जिस से बयाबाँ को भी आर आ जाए
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