दिल शब-ए-फ़ुर्क़त सुकूँ की जुस्तुजू करता रहा
दिल शब-ए-फ़ुर्क़त सुकूँ की जुस्तुजू करता रहा
रात-भर दीवार-ओ-दर से गुफ़्तुगू करता रहा
जो बहारों की चमन में आरज़ू करता रहा
नज़्र-ए-रंग-ओ-बू ख़ुद अपना ही लहू करता रहा
अपनी नज़रों को ख़राब-ए-जुस्तुजू करता रहा
जो मुसलसल इम्तियाज़-ए-रंग-ओ-बू करता रहा
शीशा-ए-दिल जो नज़ाकत में गुहर से कम नहीं
इश्क़ में कैसे सितम सहने की ख़ू करता रहा
आशिक़ी में उस की नाकामी भी नाकामी नहीं
जो फ़ना हो कर भी तेरी जुस्तुजू करता रहा
तेरी चश्म-ए-मस्त से पीने के जो क़ाबिल न था
मय-कदे में ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू करता रहा
सोचना ये है कि उस के ख़ून-ए-दिल को क्या हुआ
जो क़फ़स में आरज़ू-ए-रंग-ओ-बू करता रहा
दिल ने जोश-ए-शौक़ में कितने ही सज्दे कर लिए
दीदा-ए-तर ख़ून-ए-दिल से ही वुज़ू करता रहा
जिस ने पैहम कोशिशें कीं अम्न-ए-आलम के लिए
वो ख़ुद अपने ही चमन को सुर्ख़-रू करता रहा
वो सितम ढाते रहे हर दिल पे और हर ज़ख़्म-ए-दिल
शिकवा-ए-बेदाद उन्हीं के रू-ब-रू करता रहा
ऐसे दीवाने को क्या चाक-ए-गरेबाँ की हो क़द्र
उम्र-भर जो चाक-ए-दामन ही रफ़ू करता रहा
सारे आलम को रही ऐ 'नाज़' उस की जुस्तुजू
अपने जल्वों को अयाँ वो कू-ब-कू करता रहा
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