ज़ेर-ए-ज़मीं रहूँ कि तह-ए-आसमाँ रहूँ
ज़ेर-ए-ज़मीं रहूँ कि तह-ए-आसमाँ रहूँ
ऐ जुस्तुजू-ए-यार बता मैं कहाँ रहूँ
मसरूफ़-ए-शुक्र-ए-ने'मत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहूँ
अल्लाह मुझ को यूँ ही पिलाए जहाँ रहूँ
घुल कर भी जानिब-ए-दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ रहूँ
मौज-ए-शराब-ए-नाब बनूँ और रवाँ रहूँ
या-रब हरीक़-ए-शो'ला-ए-इश्क़-ए-बुताँ रहूँ
दोज़ख़ की आग ले के मुक़ीम-ए-जिनाँ रहूँ
ज़ालिम ये बज़्म-ए-हुस्न का अच्छा रिवाज है
तू शम्अ हो के भी न जले मैं तपाँ रहूँ
ऐ चश्म-ए-यार मौत का पहलू बचा के तू
ऐसी निगाह डाल कि मैं नीम-जाँ रहूँ
आब-ए-हयात पी के ख़िज़र क्या यहाँ रहे
मैं ठान लूँ तो कुछ न पियूँ और यहाँ रहूँ
बन जाएँ मेरी तर्ज़-ए-फ़ना की कहानियाँ
ऐसा मिटा कि साहिब-ए-नाम-ओ-निशाँ रहूँ
साक़ी वो ख़ास-तौर की ता'लीम दे मुझे
उस मय-कदे में जाऊँ तो पीर-ए-मुग़ाँ रहूँ
'मुज़्तर' वजूद-ए-ज़ात ने घर तक भी ले लिया
जब ख़ुद वो हर जगह है तो अब मैं कहाँ रहूँ
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