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सिर्फ़ पटरी बनी रही मुझ में - मुज़दम ख़ान कविता - Darsaal

सिर्फ़ पटरी बनी रही मुझ में

सिर्फ़ पटरी बनी रही मुझ में

रेल-गाड़ी नहीं चली मुझ में

कुछ न कुछ कुछ से कुछ नहीं बनते

ऐसे कुछ कुछ पड़े कई मुझ में

उस की आँखें बनाई माचिस पे

एक सिगरेट सी जल गई मुझ में

ग़म के ख़ालिक़ ने मुझ से पूरी की

थोड़ी सी भी नहीं कमी मुझ में

मीर की लेक टुक में अटके हैं

कुछ रिवायत के मुसहफ़ी मुझ में

फ़ल्सफ़ा ख़ौफ़ दुख ख़ुशी कुछ शेर

रहते हैं इतने आदमी मुझ में

सस्ते सौदे में बेचना था मुझे

महँगी क़ीमत लिखी गई मुझ में

ग़ौर से देख फिर से इक बारी

बात अब भी नहीं बनी मुझ में

अरबी को निकालता हूँ मैं

ठूँस देते हैं फ़ारसी मुझ में

जिस को बाहर से था घटाया कभी

और अंदर से बढ़ गई मुझ में

बैठ सकती हो मेरे अंदर तुम

अब मुसीबत नहीं खड़ी मुझ में

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In Hindi By Famous Poet Muzdam Khan. is written by Muzdam Khan. Complete Poem in Hindi by Muzdam Khan. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.