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शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है - मुज़फ़्फ़र रज़्मी कविता - Darsaal

शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है

शाम-ए-ग़म है तिरी यादों को सजा रक्खा है

मैं ने दानिस्ता चराग़ों को बुझा रक्खा है

और क्या दूँ मैं गुलिस्ताँ से मोहब्बत का सुबूत

मैं ने काँटों को भी पलकों पे सजा रक्खा है

जाने क्यूँ बर्क़ को इस सम्त तवज्जोह ही नहीं

मैं ने हर तरह नशेमन को सजा रक्खा है

ज़िंदगी साँसों का तपता हुआ सहरा ही सही

मैं ने इस रेत पे इक क़स्र बना रक्खा है

वो मिरे सामने दुल्हन की तरह बैठे हैं

ख़्वाब अच्छा है मगर ख़्वाब में क्या रक्खा है

ख़ुद सुनाता है उन्हें मेरी मोहब्बत के ख़ुतूत

फिर भी क़ासिद ने मिरा नाम छुपा रक्खा है

कुछ न कुछ तल्ख़ी-ए-हालात है शामिल 'रज़्मी'

तुम ने फूलों से भी दामन जो बचा रक्खा है

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In Hindi By Famous Poet Muzaffar Razmi. is written by Muzaffar Razmi. Complete Poem in Hindi by Muzaffar Razmi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.