यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ
यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ
आ जा मिरी रूठी हुई तन्हाई इधर आ
मुझ को भी ये लम्हों का सफ़र चाट रहा है
मिल बाँट के रो लें ऐ मिरे भाई इधर आ
ऐ सैल-ए-रवान-ए-अबदी ज़िंदगी नामी
मैं कौन सा पाबंद हूँ हरजाई इधर आ
इस निकहत-ओ-रानाई से खाए हैं कई ज़ख़्म
ऐ तू कि नहीं निकहत-ओ-रानाई इधर आ
आसाब खिंचे जाते हैं अब शाम ओ सहर में
होने ही को है मारका-आराई इधर आ
सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
मुझ को भी ये दुनिया नहीं रास आई इधर आ
मैं राह-नुमाओं में नहीं मान मिरी बात
मैं भी हूँ इसी दश्त का सौदाई इधर आ
(484) Peoples Rate This