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ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं है कि मैं क्या हूँ - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी कविता - Darsaal

ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं है कि मैं क्या हूँ

ख़ुद मुझ को भी मालूम नहीं है कि मैं क्या हूँ

अब तक तो ख़ुद अपनी ही निगाहों से छुपा हूँ

हालात के नर्ग़े में कुछ इस तरह घिरा हूँ

महसूस ये होता है तुझे भूल चुका हूँ

समझा था कि रूदाद नए दौर की होगी

आया है तिरा नाम तो मैं चौंक उठा हूँ

शायद कभी बचपन में कहीं साथ रहा है

आइने में इक शक्ल को पहचान रहा हूँ

ज़ुल्फ़ों के महकते हुए साए की तलब में

तपती हुई राहों पे बहुत दूर गया हूँ

महजूब सा तन्हाई का एहसास खड़ा है

बिस्तर पे बड़ी देर से ख़ामोश पड़ा हूँ

अब सोचने बैठा हूँ कि मसरफ़ मिरा क्या है

मजबूर-ए-मोहब्बत हूँ न पाबंद-ए-वफ़ा हूँ

सुनिए तो 'मुज़फ़्फ़र' का हर इक शेर कहेगा

मैं टूटे हुए साज़ की बेचैन सदा हूँ

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In Hindi By Famous Poet Muzaffar Hanfi. is written by Muzaffar Hanfi. Complete Poem in Hindi by Muzaffar Hanfi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.