ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
मुझे शहीद का दर्जा मिला है जीने पर
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रीत पर इक निशान है शायद
रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए
ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या
किसे गुमाँ था
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
रह-गुज़र का है तक़ाज़ा कि अभी और चलो
किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा