कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी
मौज कहती ही रही ज़ेर-ओ-ज़बर मैं ही हूँ
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रीत पर इक निशान है शायद
बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
आठवाँ दरवाज़ा
निर्भया की मौत पर
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
यक़ीन आज भी वहम-ओ-गुमान में गुम है
किस ने देखी है बहारों में ख़िज़ाँ मेरे सिवा
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
सदाक़त
ख़ल्वत-ए-जाँ से चली बात ज़बाँ तक पहुँची
रेत पर इक निशान है शायद