बहकना मेरी फ़ितरत में नहीं पर
सँभलने में परेशानी बहुत है
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सदाक़त
ख़ुदा भी कैसा हुआ ख़ुश मिरे क़रीने पर
ख़्वाब उम्मीद से सरशार भी हो जाए तो क्या
रेत के शानों पे शबनम की नमी रात गए
कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी
रेत पर इक निशान है शायद
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
रीत पर इक निशान है शायद
बयाबाँ को पशेमानी बहुत है
ख़ल्वत-ए-जाँ से चली बात ज़बाँ तक पहुँची
मैं जो बद-हवास था महव-ए-कयास तुम भी थे
आठवाँ दरवाज़ा