रीत पर इक निशान है शायद
रेत पर इक निशान है शायद
ये हमारा मकान है शायद
शोर के बीच सो रही है ज़मीं
मुद्दतों की थकान है शायद
दर्द का इश्तिहार चस्पाँ है
ज़िंदगी की दुकान है शायद
तन्हा तन्हा निकल पड़े पंछी
अहद-ए-नौ की उड़ान है शायद
अक़्ल कहती है मर चुका रिश्ता
शौक़ कहता है जान है शायद
वो जहाँ पर पिघल रही है धूप
हाँ वहीं साएबान है शायद
आज वो मुस्कुरा के मिलते हैं
आज फिर इम्तिहान है शायद
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