अब सोच रहे हैं यहाँ क्या क्या नहीं देखा
अब सोच रहे हैं यहाँ क्या क्या नहीं देखा
निकले जो तिरी सम्त तो रस्ता नहीं देखा
तू ने कभी आँखों से बहाए नहीं आँसू
तू ने कभी दरियाओं को बहता नहीं देखा
फिर यूँ है कि सूरज को नहीं जानता वो शख़्स
जिस ने मिरे आँगन का अँधेरा नहीं देखा
करते हैं बहुत बात ये वीरानी-ए-दिल की
उन लोगों ने शायद मिरा हुलिया नहीं देखा
गो गर्दिश-ए-दौराँ में हैं दिन-रात मगर याँ
है ऐसी सियाही कि सवेरा नहीं देखा
उस शख़्स को आया नहीं मिलने का सलीक़ा
उस शख़्स ने इस साल भी मेला नहीं देखा
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