वफ़ा कैसी?
आज वो आख़िरी तस्वीर जला दी हम ने
जिस से इस शहर के फूलों की महक आती थी
जिस से बे-नूर ख़यालों पे चमक आती थी
काबा-ए-रहमत-ए-असनाम था जो मुद्दत से
आज उस क़स्र की ज़ंजीर हिला दी हम ने
आग, काग़ज़ के चमकते हुए सीने पे बढ़ी
ख़्वाब की लहर में बहते हुए आए साहिल
मुस्कुराते हुए होंटों का सुलगता हुआ कर्ब
सरसराते हुए लम्हों के धड़कते हुए दिल
जगमगाते हुए आवेज़ां की मुबहम फ़रियाद
दश्त-ए-ग़ुर्बत में किसी हजला-नशीं का महमिल
एक दिन रूह का हर तार सदा देता था
काश हम बिक के भी इस जिंस-ए-गिराँ को पा लें
ख़ुद भी खो जाएँ पर इस रम्ज़-ए-निहाँ को पा लें
अक़्ल उस हूर के चेहरे की लकीरों को अगर
आ मिटाती थी तो दिल और बना देता था
और अब याद के इस आख़िरी पैकर का तिलिस्म
क़िस्सा-ए-रफ़्ता बना ज़ीस्त की मातों से हुआ
दूर इक खेत पे बादल का ज़रा सा टुकड़ा
धूप का ढेर हुआ धूप के हातों से हुआ
उस का प्यार उस का बदन उस का महकता हुआ रूप
आग की नज़्र हुआ और इन्ही बातों से हुआ
(530) Peoples Rate This