रेस्तौरान में
हम इक चाय की मेज़ पे आ कर
इश्क़ का क़िस्सा ले बैठे थे
हर ख़ातून बड़ी कोमल थी
मर्द निहायत दिल वाले थे
मो'तबरान-ए-शहर में इक ने
उस को फ़्लातूनी ठहराया
उन की शरीक-ए-हयात ने उस पर
तंज़ से ''जी-अच्छा!'' फ़रमाया
पादरियों में इक ये बोले
इश्क़ घरेलू हो न तो इस से
नज़्म-ए-शिकम बरहम होता है
इक लड़की ने पूछा ''कैसे?''
इक ख़ातून ने ये फ़रमाया
इश्क़ में है तलवार की तेज़ी
और इस दौरान में उठ कर
चाय की प्याली शौहर को दी
एक गोशा बिल्कुल ख़ाली था
तुम भी जो आतीं हम मिल रहते
इश्क़ का मतलब सब पा जाते
गो हम मुँह से कुछ भी न कहते
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