रह-ओ-रस्म-ए-आश्नाई
ज़मीं नई थी, फ़लक ना-शनास था जब हम
तिरी गली से निकल कर सू-ए-ज़माना चले
नज़र झुका के ब-अंदाज़-ए-मुजरिमाना चले
चले ब-जेब-ए-दरीदा, ब-दामन-ए-सद-चाक
कि जैसे जिंस-ए-दिल-ओ-जाँ गँवा के आए हैं
तमाम नक़्द-ए-सियादत लुटा के आए हैं
जहाँ इक उम्र कटी थी, इसी क़लम-रौ में
शनाख़्त के लिए हर शाहराह ने टोका
हर इक निगाह के नेज़े ने रास्ता रोका
जहाँ जले थे तिरे हुस्न-ए-आतिशीं के कँवल
वहाँ अलाव तो क्या, राख का निशाँ भी न था
चराग़-ए-कुश्ता-ए-महफ़िल धुआँ धुआँ भी न था
मुसाफ़िरत ने पुकारा नए उफ़ुक़ की तरफ़
अगर वफ़ा की शरीअत का ये सिला होगा
नए उफ़ुक़ से तआरुफ़ के ब'अद क्या होगा
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