जुदाई
निगार-ए-शाम-ए-ग़म मैं तुझ से रुख़्सत होने आया हूँ
गले मिल ले कि यूँ मिलने की नौबत फिर न आएगी
सर-ए-राहे जो हम दोनों कहीं मिल भी गए तो क्या
ये लम्हे फिर न लौटेंगे ये साअत फिर न आएगी
जरस की नग़्मगी आवाज़-ए-मातम होती जाती है
ग़ज़ब की तीरगी है रास्ता देखा नहीं जाता
ये मौजों का तलातुम ये भरे दरिया की तुग़्यानी
ज़रा सी देर में ये धड़कनें भी डूब जाएँगी
मिरी आँखों तक आ पहुँचा है अब बहता हुआ पानी
तिरी आवाज़ मद्धम और मद्धम होती जाती है
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