हार जीत
मेरी बन जाने पे आमादा है वो जान-ए-हयात
जो किसी और से पैमान-ए-वफ़ा रखती है
मेरे आग़ोश में आने के लिए राज़ी है
जो किसी और को सीने में छुपा रखती है
शाएरी ही नहीं कुछ बाइस-ए-इज़्ज़त मुझ को
और बहुत कुछ हसद ओ रश्क के अस्बाब में है
मुझ को हासिल है वो मेआर-ए-शब-ओ-रोज़ कि जो
उस के महबूब के हातों में नहीं ख़्वाब में है
कौन जीतेगा ये बाज़ी मुझे मालूम नहीं
ज़िंदगी में मुझे क्या और उसे क्या मिल जाए
काश वो ज़ीनत-ए-आग़ोश किसी की बन जाए
और मुझे गरमी-ए-पैमान-ए-वफ़ा मिल जाए
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