फ़रहाद
उस से मिलना तो इस तरह कहना
तुझ से पहले मिरी निगाहों में
कोई रूप इस तरह न उतरा था
तुझ से आबाद है ख़राबा-ए-दिल
वर्ना मैं किस क़दर अकेला था
तेरे होंटों पे कोहसार की ओस
तेरे चेहरे पे धूप का जादू
तेरी साँसों की थरथराहट में
कोंपलों के कुँवार की ख़ुशबू
वो कहेगी कि इन खिताबों से
और किस किस पे जाल डाले हैं
तुम ये कहना कि पेश-ए-साग़र-ए-जम
और सब मिट्टियों के प्याले हैं
ऐसा करना कि एहतियात के साथ
उस के हाथों से हाथ टकराना
और अगर हो सके तो आँखों में
सिर्फ़ दो-चार अश्क भर लाना
इश्क़ में ऐ मुबस्सिरीन-ए-किराम
यही तकनीक काम आती है
और यही ले के डूब जाती है
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