आदमी
मुझ को महसूर किया है मिरी आगाही ने
मैं न आफ़ाक़ का पाबंद न दीवारों का
मैं न शबनम का परस्तार न अँगारों का
न ख़लाओं का तलबगार न सय्यारों का
ज़िंदगी धूप का मैदान बनी बैठी है
अपना साया भी गुरेज़ाँ, तिरा दामाँ भी ख़फ़ा
रात का रूप भी बे-ज़ार, चराग़ाँ भी ख़फ़ा
सुब्ह-ए-हैराँ भी ख़फ़ा, शाम-ए-हरीफ़ाँ भी ख़फ़ा
ख़ुद को देखा है तो इस शक्ल से ख़ौफ़ आता है
एक मुबहम सी सदा गुम्बद-ए-अफ़्लाक में है
तार-ए-बे-माया किसी दामन-ए-सद-चाक में है
एक छोटी सी किरन महर के इदराक में है
जाग ऐ रूह की अज़्मत कि मरी ख़ाक में है
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