''ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते''
''ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शरह-ए-आरज़ू करते''
वो ख़ुद अगर कहीं मिलता तो गुफ़्तुगू करते
वो ज़ख़्म जिस को किया नोक-ए-आफ़्ताब से चाक
उसी को सोज़न-ए-महताब से रफ़ू करते
सवाद-ए-दिल में लहू का सुराग़ भी न मिला
किसे इमाम बनाते कहाँ वज़ू करते
वो इक तिलिस्म था क़ुर्बत में उस के उम्र कटी
गले लगा के उसे उस की आरज़ू करते
हलफ़ उठाए हैं मजबूरियों ने जिस के लिए
उसे भी लोग किसी रोज़ क़िबला-रू करते
जुनूँ के साथ भी रस्में ख़िरद के साथ भी क़ैद
किसे रफ़ीक़ बनाते किसे अदू करते
हिजाब उठा दिए ख़ुद ही निगार-ख़ानों ने
हमें दिमाग़ कहाँ था कि आरज़ू करते
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