हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
या कहीं शाम के आसार में आ बैठे हैं
हम कि जुज़ अपने सिवा औरों से वाक़िफ़ ही नहीं
ख़ुद से उकताए तो दो-चार में आ बैठे हैं
हम को भाती न थी ख़ुशबू-ए-चमन तो उठ कर
घर के गुल-दान की महकार में आ बैठे हैं
ये अजब लोग हैं जीने की तमन्ना ले कर
सुब्ह होते ही सफ़-ए-दार में आ बैठे हैं
छोड़ कर अपने ठिकानों को चमन में ये परिंद
जाने क्यूँ वादी-ए-पुर-ख़ार में आ बैठे हैं
तू न हो तो कोई तुझ सा ही नज़र आए 'शहाब'
हम जहाँ हसरत-ए-दीदार में आ बैठे हैं
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