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मुझ को कहाँ गुमान गुज़रता कि मैं भी हूँ - मुस्लिम सलीम कविता - Darsaal

मुझ को कहाँ गुमान गुज़रता कि मैं भी हूँ

मुझ को कहाँ गुमान गुज़रता कि मैं भी हूँ

देखा तुम्हें तो मैं ने ये जाना कि मैं भी हूँ

मेरे भी बख़्त में है अंधेरा कि मैं भी हूँ

समझे न रात ख़ुद को अकेला कि मैं भी हूँ

घर तो बहा के ले गया ख़ाशाक की तरह

दरिया न छोड़ मुझ को अकेला कि मैं भी हूँ

ऐ काश चीख़ता उसे आता तो मैं नज़र

उस साहब-नज़र ने न देखा कि मैं भी हूँ

मैं अपनी धुन में कितनी बुलंदी पे आ गया

कोई नहीं है देखने वाला कि मैं भी हूँ

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In Hindi By Famous Poet Muslim Saleem. is written by Muslim Saleem. Complete Poem in Hindi by Muslim Saleem. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.