जुस्सा-ए-तहय्युर को लफ़्ज़ में जकड़ते हैं
जुस्सा-ए-तहय्युर को लफ़्ज़ में जकड़ते हैं
शेर हम नहीं कहते तितलियाँ पकड़ते हैं
क्यूँ हमारे क़ब्ज़े में कोई जिन नहीं आता
इस चराग़-ए-हस्ती को हम भी तो रगड़ते हैं
बर-क़रारी-ए-ज़ाहिर कितना ख़ूँ रुलाती है
अपने जिस्म के अंदर हम किसी से लड़ते हैं
क़ाबिल-ए-उबूर इतनी है बदन की सफ़-बंदी
तीर जितने चलते हैं रूह ही में गाड़ते हैं
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