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कभी नसीब की भूले से भी सहर न हुई - मुश्ताक़ सिंह कविता - Darsaal

कभी नसीब की भूले से भी सहर न हुई

कभी नसीब की भूले से भी सहर न हुई

बग़ैर हसरत-ओ-ग़म ज़िंदगी बसर न हुई

सहर क़रीब है शम-ए-हयात बुझती है

दयार-ए-ग़ैर में यारों को ही ख़बर न हुई

तुम्हें क़रीब से देखता तो ख़ुद को पहचाना

शुआ-ए-हसरत-ए-दिल हम पे बे-असर न हुई

कहाँ कहाँ न हुई दास्तान-ए-दिल रुस्वा

वो कू-ब-कू न हुई या कि दर-ब-दर न हुई

मरीज़-ए-इश्क़ का तो इस क़दर फ़साना है

दवा हो या कि दुआ कोई कारगर न हुई

उठाईं तोहमतें हम ने जहान-भर की मगर

ज़रा सी भूल की भी तुम से दरगुज़र न हुई

अगरचे मय-कदा में तिश्नगी ग़ज़ब की थी

हमारे वास्ते ही मेहरबाँ नज़र न हुई

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In Hindi By Famous Poet Mushtaq Singh. is written by Mushtaq Singh. Complete Poem in Hindi by Mushtaq Singh. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.