ज़ख़्म थोड़ी सी ख़ुशी दे के चले जाते हैं
ज़ख़्म थोड़ी सी ख़ुशी दे के चले जाते हैं
ख़ुश्क आँखों को नमी दे के चले जाते हैं
रोज़ आते हैं उजाले मिरे अंधे घर में
रोज़ इक तीरा-शबी दे के चले जाते हैं
इन किराए के घरों से तो मैं बे-घर अच्छा
नित-नई दर-बदरी दे चले जाते हैं
ज़ाइक़ा मुद्दतों रहता है मिरे होंटों पर
वो ज़रा सी जो हँसी दे के चले जाते हैं
शब-गुज़ारी के लिए रौशनी माँगूँ जिन से
वो चराग़-ए-सहरी दे के चले जाते हैं
इख़्तिलाफ़ात उसी मौसम-ए-गुल से हैं जो 'शाद'
ख़ार-बख़्तों को कली दे के चले जाते हैं
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