तेरी उल्फ़त को जगा रक्खा है
तेरी उल्फ़त को जगा रक्खा है
दिल में तूफ़ान उठा रक्खा है
रंज-ओ-राहत हैं गिले-शिकवे हैं
कैसा घर-बार सजा रक्खा है
उस का एहसान कि उस के दिल ने
फ़ासला हम से सदा रक्खा है
वक़्त क्यूँ रेत सा फिसला जाए
हम ने मुट्ठी में दबा रक्खा है
सामने रहते हुए भी उस ने
ख़ुद को पर्दे में छुपा रक्खा है
शाद हर पल हैं कि हम ने दिल को
ख़ूगर-ए-दर्द बना रक्खा है
ख़ार है जिस की ज़बाँ उस ने भी
घर को फूलों से सजा रक्खा है
कोई जुम्बिश पस-ए-पर्दा हो कभी
सर तिरे दर से लगा रक्खा है
वो भी क्या दिल है कि जिस में 'अंजुम'
नाम रक्खा न पता रक्खा है
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