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मुझ से पूछो - कविता - Darsaal

मुझ से पूछो

मैं हर दौर में जन्मा

बातें हर युग की

दोहरा सकता हूँ

मुझ से पूछो

मैं सुक़रात के होंटों पर था

ज़हर का प्याला

मैं ने पिया था

और सुक़रात मिरा कब था

राम ने कब बन-बास लिया था

वो तो मैं था

चौदह साल तो मैं ने काटे

जंगल जंगल सहरा सहरा

मैं भटका था

और लंका तक

तुम को तो मा'लूम नहीं है

मैं भी नूह की कश्ती पर था

तुम क्या जानो

वो कश्ती तो डूब गई थी

उस कश्ती का कोई मुसाफ़िर

कहाँ बचा था

बस इक मैं ही बच निकला था

मुझ से पूछो

और बहुत सी बातें

मैं समझा सकता हूँ

मैं हर दौर में जन्मा

मैं हर दौर में जन्मा

बातें हर युग की

दोहरा सकता हूँ

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