तिरी बर्क़-पाश-निगाह से तिरे हश्र-ख़ेज़-ख़िराम से
तिरी बर्क़-पाश-निगाह से तिरे हश्र-ख़ेज़-ख़िराम से
ब-सुकून-ए-क़ल्ब गुज़र गया मैं हर एक ऐसे मक़ाम से
मिरी ज़िंदगी के ये मरहले हमा-इत्तिक़ा हमा-बंदगी
मुझे कैफ़ उन की नज़र से है कोई वास्ता नहीं जाम से
वो लजा गए वो झिझक गए वो ठहर गए किसी सोच में
सर-ए-रह किसी ने जो दफ़अ'तन उन्हें दी सदा मिरे नाम से
मैं हूँ शम-ए-महफ़िल-ए-जावेदाँ मिरी ज़िंदगी नहीं मुख़्तसर
मैं चराग़-ए-राहगुज़र नहीं जो बुझा बुझा सा हो शाम से
वो लिहाज़-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं वो मज़ाक़-ए-बादा-कशी कहाँ
हमें फिर अता हो मय-ए-कुहन नए दौर में नए जाम से
तिरा ज़िक्र सुन के तड़प उठा तिरा नाम ले के मैं रो दिया
मुझे एक निस्बत-ए-ख़ास है तिरे ज़िक्र से तिरे नाम से
न रहा 'मुशीर' ही तिश्ना-लब सर-ए-बज़्म साक़ी-ए-बे-ख़बर
कोई बादा-कश नहीं मुतमइन तिरे मय-कदे के निज़ाम से
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