नज़रों की ज़िद से यूँ तो मैं ग़ाफ़िल नहीं रहा
नज़रों की ज़िद से यूँ तो मैं ग़ाफ़िल नहीं रहा
पहलू में ऐ 'मुशीर' मगर दिल नहीं रहा
ऐ दिल तसव्वुरात का हासिल नहीं रहा
कोई मिरी नज़र के मुक़ाबिल नहीं रहा
मौजों पे ए'तिमाद न क्यूँ कर करे कोई
साहिल तो ए'तिबार के क़ाबिल नहीं रहा
आदाब-ए-बज़्म-ए-नाज़ पे ऐ दिल नज़र तो है
माना कि दर्द ज़ब्त के क़ाबिल नहीं रहा
वो चश्म-ए-इश्वा-कार है आमादा-ए-करम
अब दर्द ए'तिबार के क़ाबिल नहीं रहा
जल्वों का एहतिराम निगाहों में है 'मुशीर'
मैं अपने फ़र्ज़ से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा
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