क्यूँ ख़ल्वत-ए-ग़म में रहते हो क्यूँ गोशा-नशीं बेकार हुए
क्यूँ ख़ल्वत-ए-ग़म में रहते हो क्यूँ गोशा-नशीं बेकार हुए
आख़िर तुम्हें सदमा क्या पहुँचा क्या सोच के ख़ुद-आज़ार हुए
क्यूँ साफ़ कुशादा रस्तों पर तुम ठोकरें खाते फिरते हो
क्यूँ तीरा-ओ-तार सी गलियों में तुम आन के ख़ुश-रफ़्तार हुए
क्यूँ रास्ता छोड़ के चलते हो क्यूँ लोगों से कतराते हो
क्यूँ चलते फिरते अपने लिए तुम आप ही इक दीवार हुए
क्या उठते बैठते सोचते हो क्या लिखते पढ़ते रहते हो
इस उम्र में ये बे-कैफ़ी क्यूँ किस वास्ते नेक-अतवार हुए
क्यूँ ऐसे सफ़र पर निकले हो मंज़िल नहीं जिस की कोई भी
क्यूँ राह पे ऐसी चलते हो साए भी जहाँ दीवार हुए
क्यूँ तर्क-ए-आलाइक़ को तुम ने समझा है इलाज-ए-ग़म आख़िर
देखो तो वली सूफ़ी भी यहाँ किस ठाट के दुनिया-दार हुए
मायूसी-ए-पैहम से तुम ने याराना ये कैसा गाँठा है
अंदोह-ओ-अलम थे जितने भी आख़िर वो गले का हार हुए
इस कल्बा-ए-अहज़ाँ से हरगिज़ उभरेगा न सूरज कोई भी
कब ख़ाक सितारा-बार हुई कब साए सहर-आसार हुए
कब सुब्ह के नाले काम आए क्या गिर्या-ए-नीम-शबी से मिला
इस क़र्या-ए-ख़ाब-ए-फ़रोशाँ में तुम किस के लिए बेदार हुए
बेकार उलझते रहते हो क्यूँ उल्टी सीधी बातों में
ये मरहले वस्ल-ओ-हिज्राँ के अब ऐसे भी क्यूँ दुश्वार हुए
उस कूचे की राह तो समझाओ जिस कूचे में जाना मुश्किल है
उस शख़्स का नाम तो बतलाओ तुम जिस के लिए बीमार हुए
मुशफ़िक़ ने ये बातें सुन के कहा बातें न हुईं अशआ'र हुए
ये दर्द बटाने वाले भी किस शान के ख़ुश-गुफ़्तार हुए
सद-शुक्र कि ख़ुश-उस्लूबी से तकमील को पहुँची रुस्वाई
मुहताज-ए-दुआ थे जो ख़ुद ही आख़िर वो मिरे ग़म-ख़्वार हुए
(403) Peoples Rate This