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कुछ इस तरह से तेरा ग़म दिए जलाता था - मुशफ़िक़ ख़्वाजा कविता - Darsaal

कुछ इस तरह से तेरा ग़म दिए जलाता था

कुछ इस तरह से तेरा ग़म दिए जलाता था

कि ख़ाक-ए-दिल का हर इक ज़र्रा जगमगाता था

इसी लिए न किया तल्ख़ी-ए-जहाँ का गला

तिरा ख़याल पस-ए-पर्दा मुस्कुराता था

न याद रखता था मुझ को न भूल जाता था

कभी कभी वो मुझे यूँ भी आज़माता था

हर आइना था सरापा हिजाब मेरे लिए

मैं अपने आप को देखूँ नज़र वो आता था

नज़र चुरा के वो गुज़रा क़रीब से लेकिन

नज़र बचा के मुझे देखता भी जाता था

ग़ज़ल के लहजे में होती थी गुफ़्तुगू उस से

वज़ाहतों में भी इबहाम रह ही जाता था

वहाँ भी साया-ए-दीवार उस का याद रहा

ख़ुद अपना साया जहाँ साथ छोड़ जाता था

उदास कमरा महकता था किस की यादों से

वो कौन शख़्स था क्या था कहाँ से आता था

चमकते थे दर-ओ-दीवार आइनों की तरह

इन आइनों में कोई अक्स मुस्कुराता था

ये ख़्वाब ही मिरी तन्हाइयों का हासिल था

ये ख़्वाब ही मिरी तन्हाइयाँ बढ़ाता था

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In Hindi By Famous Poet Mushfiq Khwaja. is written by Mushfiq Khwaja. Complete Poem in Hindi by Mushfiq Khwaja. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.