ज़ि-बस हम को निहायत शौक़ है अमरद-परस्ती का
जहाँ जावें वहाँ इक आध को हम ताक रहते हैं
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जिस वक़्त कि कोठे पर वो माह-ए-तमाम आवे
शब मगर रह गई थोड़ी जो नज़र आता है
'मीर' क्या चीज़ है 'सौदा' क्या है
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
अब जिस दिल-ए-ख़्वाबीदा की खुलती नहीं आँखें
शब-ए-हिज्राँ थी मैं था और तन्हाई का आलम था
मैं तेरे डर से न देखा उधर बहुत शब-ए-वस्ल
जो है सो तुम्हारा ही तरफ़-दार है साहिब
पीछे पड़ी हैं दिल के बे-तरह मेरी आँखें
मैं कर के चला बातें और उस शोख़ ने वोहीं
हम भी हैं तिरे हुस्न के हैरान इधर देख
वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ