ज़ालिम ख़ुदा के वास्ते बैठा तो रह ज़रा
हाथ अपने को न कर तू जुदा मेरे हाथ से
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लुट के मंज़िल से कोई यूँ तो न आया होगा
बद-गुमानी ने मुझे क्या क्या सताया क्या कहूँ
गर हम से न हो वो दिल-सिताँ एक
तर्रार ज़ुल्फ़-ए-यार अगर चर्ख़ पर चढ़े
रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
बनाया एक काफ़िर के तईं उस दम मैं दो काफ़िर
हम ने भेजा तो है उस गुल को ज़बानी पैग़ाम
ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
आख़िर तो अर्श पर हैं अर्वाह-ए-शाइराँ भी
क्या काम किया तुम ने थी ये भी अदा कोई
वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो
मैं क्यूँकर न रख्खूँ अज़ीज़ अपने दिल को