यूँ चश्म-ए-तर से चेहरे पर आँसू हुए रवाँ
दरिया से जैसे लावे कोई नहर काट कर
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रात करता था वो इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार से बहस
दिन को है सहरा-नवर्दी से हमें काम ऐ रफ़ीक़
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख़्म
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
मक़्तल-ए-यार में टुक ले तो चलो ऐ यारो
अब मिरी बात जो माने तो न ले इश्क़ का नाम
हाल-ए-दिल-ए-बे-क़रार है और
बैठा था आ के क़ैस तो लैला के दर पे लेक
सर अपने को तुझ पर फ़िदा कर चुके हम
याँ तक किया मैं गिर्या कि ख़ूबाँ के इश्क़ में