ये कू-ए-मय-फ़रोश में रौला हुआ कि रात
दहशत से वाँ ठहर न सका पा-ए-मोहतसिब
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वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
रोज़-ए-विसाल जिस को कहती है ख़ल्क़ वो ही
ओ मियाँ बाँके है कहाँ की चाल
सादगी देख कि बोसे की तमअ रखता हूँ
सीने के ज़ोर से भी मू भर नहीं उकसती
चश्म-ए-लैला का जो आलम है उन्हों की चश्म में
दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले
पहलू में रह गया यूँ ये दिल तड़प तड़प कर
तेरी इस्मत में हमें शक नहीं ऐ माया-ए-नाज़
आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
खेल जाते हैं जान पर आशिक़