ये कब ख़याल में लाते हैं ताज-ए-शाही को
दिमाग़ अर्श पे है तेरे कम-दिमाग़ों का
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जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
मिरा सलाम वो लेता नहीं मगर समझा
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
ऊधर गया तू ग़ुस्ल को हम्माम की तरफ़
कीजिए ज़ुल्म सज़ा-वार-ए-जफ़ा हम ही हैं
क्या किया उस का किसू ने बाग़ से जाती रही
कुछ शेर-ओ-शायरी से नहीं मुझ को फ़ाएदा
दिल के आईने की हम लेते हैं तब है है ख़बर
है रोज़-ए-पंज-शम्बा तू फ़ातिहा दिला दे
दिल में है उस के मुद्दई का इश्क़
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
अब ख़ुदा मग़फ़िरत करे उस की