यार रोते रहे सब रूह ने परवाज़ किया
क्या मुसाफ़िर के तईं शिद्दत-ए-बाराँ रोके
Ahmad Faraz
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तेरी क़सम है अपना तो रुक जाए जी वहीं
निस्बत फिर उस से क्या मह-ए-दाग़ी को दीजिए
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
है ये फ़लक-ए-सिफ़्ला वो फीका सा फ़रंगी
टुकड़ा जहाँ गिरा जिगर-ए-चाक-चाक का
'मुसहफ़ी' होता मुसलमान जो मुझ सा काफ़िर
मुझ से जो मेरी ज़ोहरा मिलती नहीं है अब तक
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
हम सुबुक-रूह असीरों के लिए लाज़िम है
लाख हम शेर कहें लाख इबारत लिक्खें
बीमार दिल जुदा है इधर मैं उधर जुदा